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परिशिष्ट 21 1
वेद-रहस्य
वेद-संहिता भारतवर्षके धर्म, सभ्यता और अध्यात्म-ज्ञानका सनातन स्रोत है । किंतु इस स्रोतका मूल अगम्य पर्वत-गुहामें विलीन है । इसकी पहली धारा भी अति प्राचीन घनकंटकमय अरण्यमें पुष्पित वृक्ष-लता-गुल्मके विचित्र आवरणसे आवृत है । वेद रहस्यमय हैं । उनकी भाषा, कथन- शैली, विचार-धारा आदि अन्य युगकी सृष्टि हैं, अन्य प्रकारके मनुष्योंकी बुद्धिकी उपज हैं । एक ओर तो वे अति सरल हैं, मानो निर्मल वेगवती पर्वतीय नदीके प्रवाह हों, दूसरी ओर यह विचार-प्रणाली हमें इतनी जटिल लगती है, इस भाषाका अर्थ इतना संदिग्ध हैं कि मूल विचार तथा पंक्ति- पक्तिमें व्यवहृत सामान्य शब्दके विषयमें भी प्राचीन कालसे तर्क-वितर्क और मतभेद होता आ रहा है । परम पंडित सायणाचार्यकी टीका पढ्नेपर मनमें यह धारणा बनती है कि वेदोंका कभी कोई संगत अर्थ नहीं रहा, अथवा यदि कुछ था तो वह वेदोंके परवर्ती ब्राह्मण-ग्रन्थोंकी रचनाके बहुत पहले ही सर्वग्रासी कालके अतल विस्मृति-सागरमें निमग्न हो गया ।
सायण वेदोंका अर्थ करते समय बड़ी भारी धाँधलीमें जा फँसे हैं, मानो इस घोर अंधकारके, मिथ्या प्रकाशके पीछे खड़ा कोई बार-बार फिसला जाता हो, गर्त्तमें, पंकमें, गंदे जलमें जा गिरता हो, परेशान हो रहा हो, फिर भी छोड़ न पा रहा हो । वेद आर्यधर्मके असली ग्रंथ हैं, इनका अर्थ करना ही पड़ता है, किंतु इनमें इतनी पहेलियां हैं, इतने रहस्यमय नानाविध निगूढ़ विचारोंसे विजड़ित संश्लेषण हैं कि हजारों स्थलोंका अर्थ किया ही नहीं जा सकता, जैसे-तैसे, जहाँ अर्थ हो भी जाता है वहाँ भी प्रायः संदेहकी छाया आ पड़ती है । इस संकटसे बहुत बार निराश हो सायणने ऋषियोंकी वाणीमें ऐसी व्याकारण-विरोधी भाषाका, ऐसी कुटिल, जटिल और भग्न वाक्यरचनाका तथा इतने विक्षिप्त असंगत बिचारोका आरोप किया है कि ___________ 1. इसमें श्रीअरविन्दकी बेदविषयक मूल बंगला रचनाओंका अविकल अनुवाद दिया गया हैं । -अनुवादक २९४ उनकी टीका पढ्नेके बाद इस भाषा और विचारको आर्य न कह बर्बर या पागलका प्रलाप कहनेकी प्रवृत्ति होती है । सायणका कोई दोष नहीं । प्राचीन निरुक्तकार यास्कने भी वैसी ही धांधली मचायी है और यास्कके पूर्ववर्ती अनेक ब्राह्मणकारोंने भी वेदका सरल अर्थ न पानेके कारण कल्पनाकी सहायतासे, गाथा-सर्जक शक्ति ( mythopoeic faculty) का आश्रय ले दुरूह ऋचाओंकी व्याख्या करनेकी विफल चेष्टा की है ।
इतिहासकारोंने इसी प्रणालीका अनुसरण कर, नानाविध कल्पित इति- हासका आडंबर खड़ाकर वेदके परिष्कृत सरल अर्थको विकृत और जटिल बना डाला है । एक ही उदाहरणसे इस अर्थविकृतिका रूप और मात्रा समझमें आ जायगी । पंचम मंडलके द्वितीय सूक्तमें अग्निकी निष्पेषित या आच्छन्न (गुंठित) अवस्था और तुरत उसके बृहत् प्रकाशकी बात कही गयी है-
कुमारं माता युवति: समुव्धं गुहा बिभर्त्ति न ददाति पित्रे ।.... कमेतं त्वं युवते कुमारं पेषी बिभर्षि महिषी जजान । पूर्वीर्हि गर्भ: शरदो ववर्धाऽपश्यं जातं यदसूत माता । ऋ. 5. 2. 1-2
इसका अर्थ है : ''युवती माता कुमारको ढककर गुहामें अर्थात् गुप्त स्थानमें, अपने जठरमें वहन करती हैं, पिताको देना नहीं चाहती । हे युवती, वह कुमार कौन है जिसे तुम संपिष्ट हो अर्थात् अपनी संकुचित अवस्थामें, अपने भीतर वहन करती हो ? माता जब संकुचित अवस्था छोड़ महती बनती है तब वह कुमारको जन्म देती है । गर्भस्थ शिशु लगातार कई वर्षोतक बढ्ता रहा, जब माताने उसे जन्म दिया तब मैं, उसे देख सका ।" वेदकी भाषा सर्वत्र ही थोड़ी सघन, संहत, सारयुक्त है, थोड़े शब्दोंमें अधिक अर्थ प्रकट करना चाहती है, फिर भी अर्थकी सरलता, विचारोंके सामंजस्यमें कोई क्षति नहीं होती । ऐतिहासिकगण इस सूक्तके इस सरल अर्थको नहीं समझ सके, जब माता 'पेषी' होती है तब कुमार 'समुब्ध' होता है, माताकी संपिष्ट अर्थात् संकुचित अवस्थामें कुमारकी भी निष्पिष्ट अर्थात् ढकी हुई अवस्था होती है, ऋषिकी भाषा और विचार-संबंधी इस सामंजस्यको वे न तो देख सके और न हृदयंगम ही कर सके । उन्होंने 'पेषी' को पिशाची समझा, सोचा किसी पिशाचिनीने अग्निका तेज हरण किया हैं, 'महिषी' का अर्थ राजाकी महिषी समझा, 'कुमारं समुब्धम्' खे किसी ब्राह्मण-कुमारको रथके पहियेसे निष्पेषित हो मरा हुआ समझा । इस अर्थके सहारे एक अच्छी-खासी आख्यायिकाकी भीं सृष्टि हो गयी । २९५ फलत: सीधी ऋक्का अर्थ दुरूह वन गया, कुमार कौन है, जननी कौन है, पिशाचिनी कौन है, अग्निकी कहानी है या ब्राह्मणकुमारकी, कौन किसे किस विषयमें कह रहा है कुछ समझमें नहीं आता, सब घपला हों गया है । सर्वत्र ऐसा ही अत्याचार दिखायी देता है, अनुचित कल्पनाके उपद्रवसे वेदका प्रांजल पर गभीर अर्थ विकृत और विकलांग हो गया है, अन्यत्र जहाँ भाषा और विचार क़ुछ जटिल हैं, टीकाकारकी कृपासे दुर्बोधताने भीषण अस्पृश्य मूर्ति धारण कर ली है ।
अलग-अलग ऋक् अथवा उपमा ही क्यों, वेदके यथार्थ मर्मके विषयमें अति प्राचीन कालमें भी बहुत अधिक मतभेद था । ग्रीस देशके यूहेमेर (Euhemeros) के मतानुसार ग्रीक जातिके देवता चिरस्मरणीय वीर और राजा थे, कालक्रमसे अन्य प्रकारके कुसंस्कारने तथा कवियोंकी उद्दाम कल्पनाने उन्हें देवता बना स्वर्गमें सिहासनारूढ़ कर दिया । प्राचीन भारतमें भी यूहेमेर-मतावलम्बियोंका अभाव नहीं था । द्रष्टांतस्वरूप, वे कहते, असलमे अश्वि-द्वय (अश्विनौ) न देवता है न नक्षत्र, वरन् थे दो विख्यात राजा, हमारी तरह ही रक्त-मासके मनुष्य, हो सकता है मुत्युके बाद देव-पद पा गये हों । द्सरोंके मतानुसार यह सब solar myth है अर्थात् सूर्य, चन्द्र, आकाश, तारे, वृष्टि इत्यादि बाह्य प्रकृतिकी क्रीड़ाको कवि- कल्पित नाम-रूपोंमे सजा मनुष्याकृतिसंपन्न देवता बना दिया गया है । वृत्र मेघ है, वल भी मेघ है, और जिनने दस्यु. दानव, दैत्य हैं वे सब आकाशके मेघमात्र हैं, वृष्टिके देवता इन्द्र इन सब सूर्यकिरणोंको रोकनेवाले जलवर्षण-विमुख कृपण जलधरोंको विद्ध कर वृष्टि प्रदान करते तथा उससे पंचनदकी सप्त नदियोंके अबाध स्रोतका सृजन कर भूमिको उर्वर, आर्यको धनी और ऐश्वर्यशाली बना देते हैं । अथवा, इन्द्र, मित्र, अर्यमा, भग, वरुण, विष्णु आदि सबके सब सूषर्यके नाम-रूपमात्र है; मित्र दिनके देवता हैं, वरुण रात्रिके; जो ऋभुगण मनके बलसे इन्द्रके अश्व, अश्विनीफुमारोंके रथका निर्माण करते हैं, वे भी और कुछ नही, सूर्यकी ही किरणें है । दूसरी ओर असंख्य कट्टर वैदिक लोग भी थे जो कर्मकांडी थे । उनका कहना था कि देवता मनुष्याकृति देवता भी हैं और प्राकृतिक शक्तिके सर्वव्यापी शक्तिधर भी, अग्नि एक साथ ही विग्रहवान् देवता और वेदीकी आग है, पार्थिव अग्नि, वडवानल और विद्युत् इन तीन मूर्तियोंमें प्रकटित हैं । सरस्वती नदी भी है और देवी भी, इत्यादि । इनका दृढ़ विश्वास था कि देवतागण स्तव-स्तुतिसे संतुष्ट हो परलोकमें स्वर्ग, इहलोकमें बल, पुत्र, गाय घोड़ा, अन्न और वस्त्र देते हैं, शत्रुका संहार करते हैं, स्तोताके बेअदब
२९६ निंदक समालोचकका मस्तक वज्राघातसे च्र-चूर कर देते हैं और इस तरहके शुभ मित्र-कार्य संपन्न करनेके लिये सर्वदा तत्पर रहते हैं । प्राचीन भारतमें यह मत ही प्रबल था ।
तथापि ऐसे विचारशील लोंगोंका अभाव नहीं था जो वेदके वेदत्वमें, ऋषिके प्रकृत ऋषित्वमें आस्था रखते थे, ऋक्-संहिताके आध्यात्मिक अर्थको खोज निकालते थे, वेदमें वेदांतका मूल तत्त्व खोजते थे । उनके मतानुसार ऋषिगण देवताके सम्मुख जिस ज्योतिके दानके लिये प्रार्थना करते थे वह भौतिक सूर्यकी नहीं वरन् ज्ञानसूर्यकी, गायत्नी-मन्त्रोक्त सूर्यकी ज्योति थी जिसके दर्शन विश्वामित्रने किये थे । यह ज्योति वही 'तत्सवितुर्वरेण्यं देवस्य भर्ग:' थी, वे देवता वही 'यों नो धिय: प्रचोदयात्' थे जो हमारे सभी विचारोंको सत्य-तत्त्वकी ओर प्रेरित करते है । ऋषि तमसे डरते थे--रात्रिके नहीं बल्कि अज्ञानके घोर तिमिरसे । इन्द्र जीवात्मा अथवा प्राण है; वृत न मेघ है न कविकल्पित असुर जो हमारे पुरुषार्थको घोर अज्ञानके अंधकारसे आवृत कर रोक रखता है, वरन् जिसमें देवगण पहले निहित और लुप्त रहते, पीछे देववाक्यजनित उज्जवल ज्ञानालोकसे निस्तारित और प्रकटित होते हैं वही है वृत्र । सायणाचार्यने इन लोगोंको ''आत्मविद्'' नाममे अभिहित कर बीच-बीचमें इनकी वेद-व्याख्याका उल्लेख किया है ।
इस आत्मवित्-कृत व्याख्याके दृष्टांतरूप रहूगण पुत्र गौतम ऋषिके मरुत्स्तोत्रका उल्लेख किया जा सकता है । उस सूक्तमें गौतम मरुद्गणका आवाहन कर उनसे ''ज्योति'' की भिक्षा मांगते हैं--
यूयं तत् सत्यशवस आविष्कर्त महित्वना । विध्यता विद्युता रक्षः ।। गूहता गुह्यं तमो वि यात विश्वमत्रिणम् । ज्योतिष्कर्ता यदुश्मसि ।। ऋ. 1. 86.9-10
कर्मकांडियोंके मतसे इन दोनों ऋचाओंकी ब्याख्यामें ज्योतिको भौतिक सूर्यकी ही ज्योति समझना होगा । ''जिस राक्षसने सूर्यके आलोकको अंधकारसे ढक दिया है उस राक्षसका विनाश कर मरुद्गण सूर्यकी ज्योतिको पुनः दृष्टिगोचर करें ।'' आत्म-विद्के मतसे दूसरे प्रकारसे अर्थ करना उचित हैं, जैसे, ''तुम सत्यके बलसे बली हो, तुम्हारी महिमासे वह परमतत्त्व प्रकाशित हो, अपने विद्युत्-सम आलोकसे राक्षसको विद्ध करो । हृद-गुहामें प्रतिष्ठित अंधकारको छिपा दो अर्थात् वह अंधकार सत्यके आलोककी बाढ़में निमग्न, अदृश्य हो जाय । पुरुषार्थके समस्त भक्षकोंको अपसारित कर, हम जो ज्योति चाहते हैं उसे प्रकट करो ।'' यहाँ मरुद्गण मेघहंता वायु नहीं, २९७ पंचप्राण हैं । तम है हृदयगत भाव-रूप अंधकार, पुरुषार्थके भक्षक हैं षड् रिपु, ज्योति: है परमतत्त्वके साक्षात्कार-स्वरूप ज्ञानका आलोक । इस व्याख्यासे वेदमें अध्यात्मतत्त्व, वेदांतका मूल सिद्धांत, राजयोगकी प्राणायाम- प्रणाली--सब एक साथ मिल गये ।
यह तो हुई वेदसंबंधी स्वदेशी धांधली । उन्नीसवीं शताब्दीमें पाश्चात्य पंडितोंके कमर कसकर अखाड़ेमें उतर आनेसे इस क्षेत्रमें घोरतर विदेशी धांधली मची है । उस जलप्लावनकी विपुल तरंगमें हम आज भी डूबते-उतराते बह रहे हैं । पाश्चात्य पंडितोंने प्राचीन निरुक्तकार तथा ऐतिहासिकोंकी पुरानी नींवपर ही अपने चमचमाते नवीन कल्पना-मंदिरका निर्माण किया है । वे यास्कके निरुक्तको उतना नहीं मानते, बर्लिन और पेट्रोगार्डमें नवीन मनोनीत निरुक्त तैयार कर उसीकी सहायतासे वेदकी व्याख्या करते हैं । उन्होंने प्राचीन भारतवर्षीय टीकाकारोंकी 'सौर गाथा' (solar myth)) की विचित्न नवीन मूर्ति गढ़, प्राचीन रंगपर नवीन रंग चढ़ा, इस देशके शिक्षित संप्रदायकी आखें चौंधिया दी हैं । इस यूरोपीय मतके अनुसार भी वेदोक्त देवतागण बाह्य प्रकृतिकी नानाविध क्रीड़ाके रूपकमात्र हैं । आर्य लोग सूर्य, चंद्र, तारे, नक्षत्र, उषा, रात्रि, वायु, आधी, झील, नदी, समुद्र, पर्वत, वृक्ष इत्यादि दृश्य वस्तुओंकी पूजा करते थे । इन सबको देख आश्चर्यसे अभिभूत बर्बर जाति कविप्रदत्त रूपकके बहाने इन्हीं सबकी विचित्र गतिका स्तवगान करती थी । फिर उन्हींके अंदर नाना देवताओंकी चैतन्यपूर्ण क्रिया समझ उन शक्ति-धरोंके साथ मित्रता स्थापित करती तथा उनसे युद्धमें विजय, धन-दौलत, दीर्घ जीवन, आरोग्य और संततिकी कामना करती थी, रातके अंधकारसे अत्यंत भयभीत हो यज्ञ-यागद्वारा सूर्यकी पुन-रुपलब्धि करती थी । उन्हें भूतका भी आतंक था, भूतको भगानेके लिये वे देवताओंसे कातर प्रार्थना करते थे । यज्ञसे स्वर्ग-प्राप्तिकी आशा और प्रबल इच्छा इत्यादि प्रागैतिहासिक बर्बर जातिके उपयुक्त एक धारणा और कुसंस्कार है ।
युद्धमें विजयलाभ, पर युद्ध किसके. साथ ? वे कहते हैं कि पंचनदनिवासी आर्यजातिका युद्ध वास्तवमें भारतवासी द्राविड़ जातिके साथ था और पड़ोसियोंके बीच जैसे युद्ध-विग्रह सदा होता रहता है वैसे आर्य-आर्यमें आपसी कलह था । जिस तरह प्राचीन ऐतिहासिक वेदकी अलग-अलग ऋचाओं अथवा सूक्तोंको आधार बना नाना प्रकारका इतिहास तैयार करते थे इनकी भी ठीक वही प्रणाली हैं । अतः विचित्न अतिप्राकृतिक घटनाओंसे भरी विचित्र कहानी न गढ़, जैसे जार ( जरपुत्र) वृष ऋषिके सारथ्यमें रथके २९८ चक्केसे ब्राह्मणकुमारके निष्पेषण, मन्त्रद्वारा पुनर्जीवन-दान, पिशाची द्वारा अग्नि-तेज-हरण आदि-आदिकी अद्भुत कल्पना न कर, ये आर्य तृत्सुराज सुदासके साथ मिश्रजातीय दस राजाओंके युद्ध, एक ओर वशिष्ठ और दूसरी ओर विश्वामित्रका पौरोहित्य, पर्वतगुहानिवासी द्राविड़ जातिद्वारा आर्योंके गोधनका हरण तथा नदी-प्रवाहका बंधन, देवशुनी सरमाकी उपमाके बहाने द्राविड़ोंके निकट आर्योंका दूत या राजदूतीका प्रेरण आदि सत्य या मिथ्या संभव घटनाओंको ले प्राचीन भारतका इतिहास लिखनेकी चेष्टा करते हैं । इस प्राकृतिक क्रीड़ाके परस्परविरोधी रूपकमें और: इस इतिहास-संबंधी रूपकमें मेल बैठानेकी चेष्टा करते हुए पाश्चात्य पंडितमंडलीने वेदके विषयमें जो अपूर्व गोलमाल किया है वह वर्णनातीत है । परंतु उनका कहना है कि आखिर हम करें क्या, प्राचीन बर्बर कवियोंकें मनमें ही गोलमाल था, इसी कारण इस तरह जोड़-तोड़ करना पड़ा है, किंतु हमारी व्याख्या बिल्कुल ठीक, विशुद्ध और निर्भ्रान्त है । जो हो, फलस्वरूप प्राच्य पंडितोंको व्याख्यासे जिस तरह वेदका अर्थ असंगत, गड़बड़, दुरूह और जटिल हो गया है वैसे ही पाश्चात्योंकी व्याख्यासे भी । सभी बदला फिर भी सब वही है । टेम्स, सेन (sein) और नेवा (Neva) नदीके सैकड़ों वज्रधरोंने हमारे मस्तकपर नवीन पांडित्यकी स्वर्गीय सप्त नदियोंको बरसाया है सही, परंतु उनमेंसे कोई भी वृत्रकृत अंधकारको नहीं हटा सका । हम जिस तिमिरमें थे उसी तिमिरमें हैं । २९९
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